यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.17 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण तीन प्रकार के तपों (शारीरिक, वाचिक और मानसिक) के सात्त्विक स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं:
"जो तप श्रद्धा के साथ, उच्चतम समर्पण के भाव से, बिना किसी फल की आकांक्षा के, और पूर्ण आत्मसंयम के साथ किया जाता है, वह सात्त्विक तप कहलाता है।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि सात्त्विक तप वह है जो निस्वार्थ भाव से किया जाता है और जिसमें आत्मिक उन्नति और ईश्वर के प्रति समर्पण प्रमुख होते हैं। ऐसे तप में फल की आकांक्षा नहीं होती और यह व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है।
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