Shayari_Dil_Sey

Written by: ARUN KUMAR SINGH
  • Summary

  • Hindi Poetries and Shayaris
    ARUN KUMAR SINGH
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Episodes
  • Pretni ka Pachda (Hasya Kavita)
    Aug 24 2022
    प्रेतनी का पचड़ा सातों दिन मैं हफ्ते के चौबीसों घंटे डरता था भूत पिशाच ना आ धमके इस डर से सहमा रहता था थे परिहास उड़ाते लोग मगर उन मूर्खों ने क्या देखा था वो खंडहर वाली प्रेतनी नाम जिसका रेखा था रात अमावस की एक थी मैं मेरी साइकिल पर था था भाग रहा सरपट सरपट घर पहुँचू इस जल्दी में था कि तभी अचानक ठाँय हुआ तशरीफ़ लिए में धम से गिरा देखा उठ साइकिल पंचर थी अब पैदल ही आगे बढ़ना था उस सड़क में आगे खंडहर था वह कहते हैं भूतों का घर था पर लोगों का काम ही कहना है मुझको ना रत्ती भर डर था कुछ आगे चल मुझे हुई थकान अभी दूर बहुत था मेरा मकान सोचा रुक कुछ साँसें ले लूँ थोड़ी पैरों को भी राहत दे दूँ पर हाथ पाँव गये मेरे फूल सड़क से जब हुई बत्ती गुल झोंके तेज हवा के होने लगे कुत्ते बिल्ली मिल रोने लगे मैं तेज कदम से चलने लगा नाक की सीध में बढ़ने लगा तभी लगा मेरे कोई पीछे था कोई बैठा बरगद के नीचे था वह बरगद खंडहर वाला था साइकिल में पड़ गया ताला था मैं खींच रहा वह हिलती ना कुछ कर लूँ आगे चलती ना जब भय से नजरें नीची की थी देखा झाड़ फंसी चक्कों में थी था निकाल झाड़ को जब मैं रहा सहसा किसी ने मुझको छुआ घूमा तो धड़कन रुक सी गयी थी सफेद वस्त्र में प्रेत खड़ी मैं आँख मींच रोता बोला जाने दो मैं बच्चा भोला वो हँसती बोली आँखें खोलो क्यों रोते हो कुछ तो बोलो मै हाथ छुड़ा के भागा यों मेरे पीछे राॅकेट लगा हो ज्यों मै भागा ज्यों छूटी गोली भूतनी चिल्ला के बोली क्यों भाग रहे यहाँ आओ तो अपना नाम जरा बतलाओ तो कभी यहाँ ना तुमको देखा है अरे मेरा नाम तो सुन लो, 'रेखा' है घर पहुँचा तो पुछा माँ ने बेच दी साइकिल क्या तुने मैं बोला पड़ा था खतरे में एक प्रेतनी के पचड़े में जो साइकिल जाए तो जाए जान बची तो लाखों पाए बस तब से आहें भरता था मै भूत पिशाच से डरता था पर गजब हुआ कुछ अरसा बाद एक कन्या कर गई नाम खराब कहीं बाहर से घर मैं लौटा था तभी ठहाके सुन मैं चौंका था मैने देखा घर घुसते घुसते कोई कन्या थी पीठ किए बैठे मेरे माता पिता संग बैठे थे उस कन्या से बातें करते थे फिर देख मुझे सब घर घुसते हाय लोट गए हँसते हँसते माँ बोली आ सुन ले बेटा अपनी प्रेतनी से मिलता जा मैने कोने में साइकिल देखा खिलखिला के फिर हँस दी 'रेखा'
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  • Dhundh (kavita)
    Aug 15 2022

    This poetry is based on the poet's thoughts on god 

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  • chakka jaam (kavita haasya/vyang)
    Aug 14 2022

    This poetry is a sarcastic take on the rampant blockades (mostly road blockades) enacted by the politicians and their supporters


    चक्का जाम


    बड़े से दल के नेताजी का

    देखो आया है फरमान

    बंद करो सब हाट खोमचे

    अब करना है चक्का जाम

    लाठी डंडे धरो मशालें

    शोर मचाके के भर दो कान

    शहर जलेगा आज अगर कोई

    दिखा सड़क या खुला दुकान


    काले नीले उजले कुरतों में

    सजधज काटा खूब बवाल

    अकड़ में घूमे पार्टी वाले

    लगा के माथे पट्टी लाल

    भगा भगा के मारा सबको

    पूछा जिसने कोई सवाल

    टरक फूँक दी सड़क जला दी

    तोड़ के ताले लूटा माल


    मौज हुई बच्चों की जब

    बस बीच रास्ते लौटी थी घर

    सहम के दुबके पर सब के सब

    जब देखा बाहर का तूफान

    किसी तरह से ड्राइवर बाबू

    बच्चों को घर तक पहुँचाए

    बच्चे घर जबतक ना पहुँचे

    हलक में अटकी माँ की जान


    दल मजदूरों का भाग ना पाया

    भीड़ देख कर घबराया

    पर लगाके बुद्धि घुसा भीड़ में

    पट्टी पहन ली डंडा थाम

    बढ़े भीड़ के साथ मिला

    तब आगे नेता का लंगर

    सब दबा के ठूँसे हलवा पूरी

    मुरगा भात और पकवान


    प्रसव कराने को थी निकली

    अस्पताल को एक महिला

    हुआ दर्द उस जाम मे फसंकर

    पति भी व्याकुल था हैरान

    प्रसव हुआ उस गाड़ी में ही

    बलवे में गूँजी किलकारी

    सुनके पसीजा भीड़ का भी मन

    शरम के मारे खुल गया जाम


    उस बंदी की भागमभाग में

    एक हलवाई का भाग जगा

    एक बड़ी कढ़ाई ले कर सीधा

    भागा बिना ही देकर दाम

    घर की गली के बाहर से ही

    दिखे बिलखते बीवी बच्चे

    खोल जिसे बाजार गया था

    फूँकी पड़ी थी उसकी दूकान


    नेता जी तो बड़े ही खुश थे

    सफल हुआ था चक्का जाम

    जल्द ही तोते उड़े मिली जब

    चीठ्ठी पत्नी की उनके नाम

    उसमें लिखा था ओ कपटी

    मुझे पाया पिता को धमका कर

    मैं भाग रही तेरे ड्राइवर के संग

    तुम करते रहना चक्का जाम

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    2 mins

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