यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.15 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण वाणी के तप के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं:
"जो वाक्य किसी को दुखी नहीं करते, सत्य होते हैं, प्रिय और हितकारी होते हैं, और जिसमें स्वाध्याय और ज्ञान का अभ्यास शामिल होता है, वह वाणी का तप कहलाता है।"
भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह बता रहे हैं कि वाणी का तप केवल शब्दों के नियंत्रण से नहीं, बल्कि उन शब्दों के गुणात्मक उपयोग से होता है, जो किसी के दिल को चोट नहीं पहुँचाते, सत्य होते हैं और दूसरों के लिए फायदेमंद होते हैं। स्वाध्याय और ज्ञान में निहित वाणी भी एक महत्वपूर्ण तप है।
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