• Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17

  • Auteur(s): Yatrigan kripya dhyan de!
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Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17

Auteur(s): Yatrigan kripya dhyan de!
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  • श्री भगवद गीता - अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) अध्याय 17 का सारांश: यह अध्याय श्रद्धा के तीन प्रकारों और जीवन में उनके प्रभावों का वर्णन करता है। अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि जो लोग शास्त्रों के अनुसार आचरण नहीं करते लेकिन श्रद्धा के अनुसार कार्य करते हैं, उनकी स्थिति क्या होती है? इस पर श्रीकृष्ण श्रद्धा के तीन प्रकार—सात्त्विक, राजसिक और तामसिक—का विस्तार से वर्णन करते हैं। मुख्य विषयवस्तु: श्रद्धा के तीन प्रकार: सात्त्विक श्रद्धा: यह व्यक्ति शास्त्रों के अनुसार धार्मिक और निःस्वार्थ भाव से कार्य करता है। यह व्यक्ति ज्ञान, तपस्या और त्याग में विश्वास रखता है। राजसिक श्रद्धा: इ
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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 8
    Feb 4 2025

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.8 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण सात्त्विक आहार के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं:

    "सात्त्विक आहार वे होते हैं जो आयु, सत्त्व, बल, आरोग्य, सुख और प्रेम को बढ़ाते हैं। ऐसे आहार रसीले, स्निग्ध (मुलायम), स्थिर (पाचन में हल्के) और हृदय को प्रसन्न करने वाले होते हैं। ये आहार सात्त्विक प्रवृत्तियों के अनुरूप होते हैं।"

    भगवान श्री कृष्ण इस श्लोक में सात्त्विक आहार के गुणों का विस्तार से वर्णन कर रहे हैं, जो न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी होते हैं। ये आहार व्यक्ति को शांति, संतुलन और सुख प्रदान करते हैं।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 7
    Feb 4 2025

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.7 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण कहते हैं:

    "सभी प्राणियों का आहार तीन प्रकार का होता है, जो उनके स्वभाव और गुणों पर निर्भर करता है। इसी प्रकार यज्ञ, तपस्या और दान भी तीन प्रकार के होते हैं। अब तुम इनके भेद को सुनो।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह बता रहे हैं कि जैसे आहार, यज्ञ, तपस्या और दान के विभिन्न प्रकार होते हैं, वैसे ही ये व्यक्ति के गुणों के अनुसार भिन्न होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की आदतें, आस्थाएँ और आहार उसके मानसिक और आत्मिक गुणों से प्रभावित होती हैं। इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण इन विभिन्न रूपों का विवरण देने वाले हैं।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 6
    Feb 3 2025

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.6 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण कहते हैं:

    "जो लोग अपने शरीर में स्थित भूतों (जीवों) को, बिना विवेक और बिना चेतना के, प्रकोपित करते हैं, और जो मुझे, जो शरीर के अंदर स्थित हूँ, नहीं पहचानते, वे असुर प्रवृत्तियों वाले होते हैं।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ उन लोगों का वर्णन कर रहे हैं जो अपने शरीर और मन को अविवेकपूर्ण रूप से नियंत्रित करते हैं और अपनी इच्छाओं को पूरी करने के लिए दूसरों की उपेक्षा करते हैं। वे भगवान के वास्तविक रूप को नहीं पहचानते और असुर प्रवृत्तियों में लिप्त रहते हैं। यह श्लोक यह बताता है कि असुर प्रवृत्तियाँ व्यक्ति के अंदर की चेतना और विवेक का हरण करती हैं।

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