• Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 19
    Feb 10 2025

    यह श्लोक श्रीमद्भगवद गीता के 17.19 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण तामसी तप के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं:

    "जो तप मूढ़ता के कारण, स्वयं को कष्ट देकर, अथवा दूसरों को हानि पहुँचाने के उद्देश्य से किया जाता है, उसे तामसी तप कहा गया है।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझाते हैं कि तामसी तप न केवल अनुचित है, बल्कि यह आत्मघातक और दूसरों के प्रति दुर्भावनापूर्ण होता है। ऐसा तप न तो आत्मिक उन्नति में सहायक होता है और न ही इससे कोई सकारात्मक परिणाम प्राप्त होता है। यह तप अज्ञान और नकारात्मक भावनाओं से प्रेरित होता है।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 18
    Feb 9 2025

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.18 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण राजसी तप के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं:

    "जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए, अथवा दंभ (अहंकार) के साथ किया जाता है, उसे राजसी तप कहा जाता है। ऐसा तप अस्थिर और नाशवान होता है।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह स्पष्ट कर रहे हैं कि राजसी तप स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों से किया जाता है, जिसमें व्यक्ति अपने अहंकार की संतुष्टि और दूसरों से प्रशंसा प्राप्त करने की इच्छा रखता है। ऐसा तप स्थायी फल नहीं देता और आत्मिक उन्नति में सहायक नहीं होता।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 17
    Feb 9 2025

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.17 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण तीन प्रकार के तपों (शारीरिक, वाचिक और मानसिक) के सात्त्विक स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं:

    "जो तप श्रद्धा के साथ, उच्चतम समर्पण के भाव से, बिना किसी फल की आकांक्षा के, और पूर्ण आत्मसंयम के साथ किया जाता है, वह सात्त्विक तप कहलाता है।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि सात्त्विक तप वह है जो निस्वार्थ भाव से किया जाता है और जिसमें आत्मिक उन्नति और ईश्वर के प्रति समर्पण प्रमुख होते हैं। ऐसे तप में फल की आकांक्षा नहीं होती और यह व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 16
    Feb 8 2025

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.16 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण मानसिक तप के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं:

    "मन की प्रसन्नता, सौम्यता, मौन, आत्मसंयम और भावनाओं की शुद्धि—ये सभी मानसिक तप के लक्षण होते हैं।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह बता रहे हैं कि मानसिक तप केवल बाहरी आचार-व्यवहार से नहीं, बल्कि आंतरिक शांति, संयम, और सकारात्मक मानसिकता से होता है। यह तप व्यक्ति को आंतरिक संतुलन और मानसिक शुद्धता प्रदान करता है, जिससे व्यक्ति आत्मिक उन्नति की ओर बढ़ता है।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 15
    Feb 8 2025

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.15 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण वाणी के तप के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं:

    "जो वाक्य किसी को दुखी नहीं करते, सत्य होते हैं, प्रिय और हितकारी होते हैं, और जिसमें स्वाध्याय और ज्ञान का अभ्यास शामिल होता है, वह वाणी का तप कहलाता है।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह बता रहे हैं कि वाणी का तप केवल शब्दों के नियंत्रण से नहीं, बल्कि उन शब्दों के गुणात्मक उपयोग से होता है, जो किसी के दिल को चोट नहीं पहुँचाते, सत्य होते हैं और दूसरों के लिए फायदेमंद होते हैं। स्वाध्याय और ज्ञान में निहित वाणी भी एक महत्वपूर्ण तप है।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 14
    Feb 7 2025

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.14 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण शरीर के तप के लक्षणों के बारे में बताते हुए कहते हैं:

    "देवों, ब्राह्मणों, गुरुओं और ज्ञानी व्यक्तियों का पूजन, शुद्धता, ईमानदारी, ब्रह्मचर्य और अहिंसा—ये शारीरिक तप के लक्षण होते हैं।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह स्पष्ट कर रहे हैं कि शरीर का तप केवल बाहरी कठिनाइयों या योगाभ्यास तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें सही आचार-व्यवहार, शुद्धता, अहिंसा और उच्च आत्मिक गुणों को अपनाना शामिल है। ये तप शारीरिक और मानसिक शुद्धता को बढ़ाते हैं और एक व्यक्ति को उच्चतर मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 13
    Feb 7 2025

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.13 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण तामसी यज्ञ के बारे में बताते हुए कहते हैं:

    "जो यज्ञ विधि के बिना, मंत्रों के बिना, बिना दक्षिणा (भेंट) के और श्रद्धा के बिना किया जाता है, वह तामसी यज्ञ कहलाता है।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह बता रहे हैं कि तामसी यज्ञ वह होते हैं जो न तो शास्त्रों और विधि के अनुसार किए जाते हैं, न ही उनमें श्रद्धा होती है। यह यज्ञ केवल ढोंग और आडंबर के रूप में किए जाते हैं, और इनका उद्देश्य केवल स्वार्थ और अनैतिकता होती है। तामसी यज्ञ में न तो कोई सही भावना होती है और न ही किसी धार्मिक या आध्यात्मिक उद्देश्य का पालन होता है।

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 17 | श्री भगवद गीता अध्याय 17 | श्लोक 12
    Feb 6 2025

    यह श्लोक श्री भगवद गीता के 17.12 का अंश है। इसमें भगवान श्री कृष्ण राजसी यज्ञ के बारे में बताते हुए कहते हैं:

    "जो यज्ञ केवल फल की प्राप्ति के लिए, अहंकार और दंभ के साथ किया जाता है, वही राजसी यज्ञ कहलाता है। ऐसा यज्ञ केवल नाम और दिखावे के लिए किया जाता है, न कि आत्मिक उन्नति या ईश्वर की भक्ति के लिए।"

    भगवान श्री कृष्ण यहाँ यह समझा रहे हैं कि राजसी यज्ञ वह होते हैं जो व्यक्तित्व के अहंकार और दिखावे के लिए किए जाते हैं, जहाँ फल की प्राप्ति प्रमुख उद्देश्य होती है। इस प्रकार के यज्ञ में ईमानदारी और निस्वार्थ भावनाओं का अभाव होता है।

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