Épisodes

  • नागार्जुन- नए युग के कालिदास | Nagarjun - The New Age Kalidas
    Apr 26 2023
    नागार्जुन- वैद्यनाथ मिश्र - वैद्यनाथ मिश्र जी का जन्म 30 जून 1911 को भारत के बिहार के दरभंगा जिले के तरौनी गाँव में हुआ था, उन्होंने अपना अधिकांश जीवन बिहार के मधुबनी जिले के सतलखा गाँव में बिताया। बाद में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया और अपनी दीक्षा के बाद नागार्जुन नाम अपना लिया। उन्होंने पाँच वर्ष की छोटी सी उम्र में अपनी माँ को खो दिया था। वे गरीबी और अभाव में पले थे। उनके पिता एक पुरोहित थे और आस पास के गाँव में पूजा-पाठ जैसे गृह प्रवेश और अन्य अनुष्ठान करवाया करते थे। पूजा पाठ से उतनी आय नहीं हो पाती थी कि वे अपने बेटे का उचित पालन कर पाते और उन्होंने युवा वैद्यनाथ को अपने रिश्तेदारों के हाथों में सौंप दिया और उन्हीं की छत्र छाया में वे आगे बढ़े। वे एक असाधारण छात्र थे और उनकी अधिकांश शिक्षा छात्रवृत्ति जीतकर पूरी की। उन्होंने संस्कृत, मैथिली, हिंदी और प्राकृत भाषाओं में निपुणता प्राप्त की। उन्होंने पहले स्थानीय स्तर पर और बाद में वाराणसी और कलकत्ता में पढ़ाई की। उन्नीस साल की उम्र में उनका विवाह अपरिजिता जी से हो गया। नागार्जुन जी ने 1930 के दशक की शुरुआत में यात्री नाम से मैथिली कविताओं के साथ अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत की। 1930 के दशक के मध्य तक, उन्होंने हिंदी में कविताएं लिखना शुरू कर दिया था। शिक्षक के रूप में अपनी पहली स्थाई नौकरी के लिए वो सहारनपुर चले गए, हालाँकि वे वहाँ लंबे समय तक नहीं रहे। वे राहुल सांकृत्यायन को अपना गुरु मानते थे और उन्हीं के प्रभाव में बौद्ध ग्रंथों को गहराई से जानने की उनकी इच्छा उन्हें श्रीलंका ले गई। १९३५ तक वे श्रीलंका के केलनिया के एक बौद्ध मठ में बौद्ध भिक्षु बन चुके थे। उन्होंने मठ में प्रवेश किया और बौद्ध शास्त्रों का अध्ययन किया, जैसा कि उनके गुरु, राहुल सांकृत्यायन ने किया था। बौद्ध धर्म कि दीक्षा लेके के बाद उनका नाम "नागार्जुन" पड़ गया। 1938 में प्रसिद्ध किसान नेता और किसान सभा के संस्थापक सहजानंद सरस्वती, द्वारा आयोजित 'समर स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स' में शामिल होने से पहले उन्होंने लेनिनवाद और मार्क्सवाद विचारधाराओं का गहराई से अध्ययन किया। स्वभाव से घुमक्कड़ नागार्जुन ने 1930 और 1940 के दशक में भारत भर में यात्रा करते हुए आम लोगों के जन जीवन और कठिनाइयों को करीब से ...
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  • रामधारी सिंह दिनकर - विद्रोह के कवि | Ramdhari Singh Dinkar - The Poet of Rebellion
    Apr 24 2023
    रामधारी सिंह दिनकर - विद्रोह के कवि मैं यह दावे से कह सकती हूँ ये कविता तो आपने सुनी ही होगी। 'कृष्ण की चेतावनी' उन कविताओं में से है जिसको परिचय की ज़रूरत नहीं जिसे हर कोई पढ़ना और सुनना चाहता है और जिसे लिखा था रामधारी सिंह जी ने जिन्हें साहित्य जगत में लोग दिनकर के नाम से जानते और बुलाते थे। दिनकर जी का जन्म सिमरिया गाँव के एक भूमिहर ब्राह्मण परिवार में 23 सितंबर 1908 में हुआ था जो ब्रिटिश इंडिया की बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा था। अब यह गाँव, बिहार के बेगुसराय का हिस्सा है। स्कूल में और उसके बाद कॉलेज में उन्होंने हिंदी, संस्कृत, मैथिली, बंगाली, उर्दू और अंग्रेज़ी साहित्य का अध्ययन किया। दिनकर रवींद्रनाथ टैगोर, कीट्स और मिल्टन से काफी प्रभावित थे और उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर जी की रचनाओं का बांग्ला से हिंदी में अनुवाद भी किया। दिनकर जी के काव्य को उनके व्यक्तिगत जीवन के संघर्षों ने और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सामाजिक आक्रोश और राजनैतिक अस्तव्यस्तता ने आकार दिया। वे एक कवि और निबंधकार तो थे ही साथ ही वे एक स्वतंत्रता सेनानी, देशभक्त और विद्वान भी थे। उनकी देशभक्ति उनकी कविताओं में साफ़ झलकती है और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लिखी अपनी राष्ट्रवादी कविताओं की वजह से वे विद्रोह के कवि के रूप में उभरे। उनकी कविता में वीर रस झलकता था, और उनकी प्रेरक देशभक्ति रचनाओं के कारण उन्हें राष्ट्रकवि और युग-चारण के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। वे कई हिंदी कवि सम्मेलनों में जाया करते थे और हिंदी भाषी कविता प्रेमियों के बीच उतने ही लोकप्रिय हुए हैं, जितने रूस में पुश्किन थे। १९२९ में जब दिनकर ने कॉलेज जाना शुरू किया तब गांधीजी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो चुका था और जगह जगह पर सायमन कमीशन के खिलाफ प्रदर्शन चल रहे थे। दिनकर ने भी शपथ पर हस्ताक्षर किए थे। गांधी मैदान में प्रदर्शन के दौरान अंग्रेजी सरकार की पुलिस ने लाला लाजपत राय पर अंधाधुंद लाठी बरसानी शुरू कर दी जिससे उनकी मृत्यु हो गई। इस घटना से पूरे देश में तूफ़ान सा आ गया और दिनकर मन में उम्दा गुस्सा उनकी कविताओं में उतर गया। दिनकर की पहली कविता 1924 में छात्र सहोदर नाम की क्षेत्रीय पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। 1928 में, सरदार वल्लभभाई पटेल ...
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  • अमृता प्रीतम | Amrita Preetam
    Apr 14 2023
    अमृता प्रीतम अमृता प्रीतम इनका जन्म ३१ अगस्त १९१९ में पंजाब के गुजरावाला में हुआ था जो इस समय पाकिस्तान में है। वे अपने माता पिता की एक लौती संतान थीं जो उनके जीवन में शादी के दस साल बाद आई थीं। उनकी माता राज बीबी एक टीचर थीं और उनके पिता श्री करतार सिंह हितकारी ब्रज भाषा और संस्कृत के पंडित थे और कवी भी थे। वे एक साहित्यिक मैगज़ीन के लिए एडिटर का काम किया करते थे। माता पिता ने अमृता जी का नाम अमृत कौर रखा था। घर का माहौल बहुत ही आध्यात्मिक था, जहाँ सुबह शाम भजन कीर्तन चलता रहता था। उनके पिताजी तो कविताएं लिखते ही थे पर वे भी अपने पिताजी की बहुत मदद किया करती थीं। वे बचपन से ही बहुत प्रतिभाशाली थीं और अपने पिताजी की लाडली भी थीं। अमृता जी ने ग्यारह साल की छोटी सी उम्र में अपनी माँ को खो दिया। वे बहुत बीमार थीं और बहुत प्रार्थनाओं के बाद भी नहीं बच पाईं। इस बात से नन्ही अमृता के मासूम दिल पर बहुत गहरा धक्का लगा और उन्होंने भगवान को मानना छोड़ दिया। उन्होंने अपने पिताजी से कह दिया कि वे फिर कभी भी भजन नहीं लिखेंगी। उनके इस फैंसले से घर में पिता और बेटी के बीच खूब झगड़े होते क्यूंकि पिता तो एक धार्मिक गुरु थे और सिख धर्म का प्रचार किया करते थे और अमृता अब नास्तिक हो चुकी थीं। उनके पिता ने राज बीबी की मृत्यु के बाद संन्यास लेने का मन बनाया पर बेटी के प्यार ने उनका फैसला बदल दिया। अपने पिता के प्यार के लिए अमृत ने भजन तो लिखे पर भगवान से वो विमुख हो चुकीं थीं। उनका मन धीरे-धीरे प्रेम रस की ओर झुक गया और उन्होंने प्रेम में डूबी कविताएं और कहानियां लिखना शुरू कर दिया। उसके बाद वे अपने पिताजी के साथ लाहौर आ गईं। लाहौर में वो १९४७ तक रहीं और फिर बँटवारे के दौरान सब बदल गया। उनसे उनका घर छूट गया और वे भारत आ गईं। १९३६ में इनका पहला कविता संग्रह ‘अमृत लहरें’ छपा जो अंग्रेजी में ‘द इम्मोर्टल वेव्स’ के नाम से उपलब्ध है। इसी दौरान उनकी शादी हुई प्रीतम सिंह जी से और उन्होंने अपना नाम अमृता प्रीतम रख लिया। १९४७ में पार्टीशन के दौरान सांप्रदायिक दंगों में लगभग दस लाख लोगों की जान गई। इनमें हिन्दू, मुस्लिम और सबसे ज़्यादा सिखों की जान गई। अमृता को अपने आस-पास बस लाशें, चीखें और खून ही दिखाई देने लगा। हर ओर मातम और निराशा का माहौल ...
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  • भारत के शास्त्रीय नृत्य - विशेषांक | Classical Dance forms of India – Special Episode
    Apr 5 2023
    भारत एक कला और संस्कृति का देश है और शास्त्रीय नृत्य की जड़ें हमें वैदिक युग तक ले जाती हैं जब भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र की रचना की थी जिसमें भारत के विभिन्न शास्त्रीय नृत्यों का वर्णन मिलता है। भारत में आठ मुख्य शास्त्रीय नृत्य विधाओं को देखा जा सकता है। प्रत्येक नृत्य एक क्षेत्र से जुड़ा है जिसके परिवेश से उस नृत्य को वो रूप मिला जिससे हम उसे आज जानते हैं। ये आठ शास्त्रीय नृत्य हैं- भरतनाट्यम, कत्थक, कुचिपुड़ी, मोहिनीअट्टम, कथकली, ओड़िसी, मणिपुरी और सत्रीया। इनमें से चार नृत्य भारत के दक्षिणी राज्यों से जुड़े हैं- भरतनाट्यम तमिलनाडू से, कुचिपुड़ी आंध्रप्रदेश से और कथकली और मोहिनीअट्टम केरल से। भारत के उत्तर पूर्व में देखे जाते हैं मणिपुरी और सत्रीय। भारत के पूर्वी तटीय राज्य से आता है ओडिसी और उत्तर भारत से कत्थक। पर आप इन आठ शास्त्रीय नृत्यों से कैसे जुड़ सकते हैं? इसका जवाब भी है मेरे पास। वैसे तो इंटरनेट पर सब तरह कि जानकारी मौजूद है पर मैं आपके साथ बांटने वाली हूँ जाने माने संगीत और कला से जुड़े विद्यालयों कि जानकारी, जिससे आपकी खोज थोड़ी सी आसान हो जाएगी। 1- नृत्यांजलि इंस्टिट्यूट ऑफ़ परफार्मिंग आर्ट्स, मुंबई इस विद्यालय की स्थापना १९६२ में डॉक्टर तुषार गुहा द्वारा की गई थी। इस विद्यालय का मुख्य उद्देश्य था युवाओं में भारत की महान कला और संस्कृति का प्रचार और प्रसार करना और उन्हें इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करना। 2- श्री त्यागराज कॉलेज ऑफ़ म्यूजिक एंड डांस, हैदराबाद – १९५२ में स्थापित यह विद्यालय मुख्य रूप से कुच्चीपुड़ी नृत्य के लिए बहुत प्रसिद्द है पर यहाँ शास्त्रीय संगीत तथा नृत्य की ठहरा और विधाओं की शिक्षा भी दी जाती है। 3- नालंदा नृत्य कला महाविद्यालय, मुंबई इस स्कूल को मुंबई यूनिवर्सिटी द्वारा मान्यता प्राप्त है और इसे भारत के सर्वश्रेष्ठ डांसिंग स्कूल्स में से एक मन जाता है। 4- कलाक्षेत्र फाउंडेशन या रुक्मिणीदेवी कॉलेज ऑफ़ फ़ाईन आर्ट्स की स्थापना भरतनाट्यम के विख्यात गुरुओं में से एक रुक्मिणी देवी जी द्वारा १९३६ में हैदराबाद में की गई थी। इस इंस्टिट्यूट को भारत सरकार द्वारा इंस्टिट्यूट ऑफ़ नेशनल इम्पोर्टेंस घोषित किया गया था। इस स्कूल में भरतनाट्यम और शास्त्रीय ...
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  • महादेवी वर्मा - आधुनिक भारत की मीरा | Mahadevi Verma - Meera of Modern India
    Mar 23 2023
    महादेवी वर्मा - आधुनिक भारत की मीरा हिंदी साहित्य को समय के अनुसार तीन भागों में बांटा जा सकता है, आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल। आधुनिक काल में १९२० से १९३६ के समय को छायावाद बुलाया जाता है। छायावाद के अर्थ को लेकर सभी साहित्यकारों की अपनी परिभाषा रही और कभी मतभेद भी रहा। इतना की इस विषय पर एक पूरा एपिसोड बनाया जा सकता है। फिलहाल आप इतना जानिए की कोई भी रचना जहाँ रचनाकार परोक्ष रूप से कविता या किसी भी रचना में परमार्थ की छवि का आभास कराए तो उसे छायावाद कहते हैं। तो क्या ये एपिसोड छायावाद पर है? नहीं, यह एपिसोड है महादेवी वर्मा के बारे में जो छायावाद के चार मुख्य कवियों में से एक थीं जिन्हें छायावाद के चार स्तंभ भी बुलाया जाता था। वे उन महिलाओं में से थीं जिन्होंने सामाजिक नियमों के विरुद्ध अपना रास्ता खुद बनाया था और जीवन पर्यंत उसी पर चलीं। महादेवी वर्मा का जन्म २६ मार्च 1907 को फ़र्रूख़ाबाद के एक समृद्ध परिवार में हुआ था। उनकी माता श्रीमती हेमरानी देवी बड़ी धर्म परायण और भावुक महिला थीं। इसके ठीक विपरीत उनके पिता श्री गोविन्द प्रसाद वर्मा एक विद्वान पुरुष थे जो नास्तिक थे। उन्हें घूमने-फिरने और शिकार का शौक था और वे मांसाहारी थे। पर दोनों को ही संगीत में गहरी रुचि थी जिससे उनकी सुपुत्री अछूती नहीं रहीं। विद्यालय में अपनी प्रारम्भिक शिक्षा के साथ-साथ उन्होंने घर पर ही संस्कृत, अंग्रेज़ी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा ली। १९१६ में उनकी शादी के समय उनकी शिक्षा में कुछ समय के लिए विराम लग गया पर जल्दी ही उन्होंने अपनी पढ़ाई दोबारा शुरू कर दी। विवाह के बाद उनके पति श्री स्वरूप नारायण वर्मा लखनऊ मेडिकल कॉलेज के छात्रावास यानि हॉस्टल में रहने लगे। १९१९ में महादेवी जी ने भी क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में दाखिला लिया और वहाँ के छात्रावास में ही रहने लगीं। महादेवी जी का काव्य जीवन शुरू हुआ १९२१ में जब उन्होंने प्रांत भर में आठवीं की परीक्षा पहले स्थान से उत्तीर्ण की। उस समय आठवीं का वही महत्व था जो आजकल दसवीं की बोर्ड की परीक्षा का होता है। वे सात वर्ष की थीं जब उन्होंने कविताएं लिखना शुरू कर दिया था। 1925 में जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की तब तक वे एक कवयित्री के रूप में खुदको स्थापित ...
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  • १३ फरवरी- राष्ट्रीय महिला दिवस और सरोजिनी नायडू | 13th Feb - National Women's Day and Sarojini Naidu
    Mar 22 2023
    १३ फरवरी- राष्ट्रीय महिला दिवस आठ मार्च को हमने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया पर क्या आपको पता है कि इससे पहले यानि १३ फरवरी के दिन राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है? पर क्यों? आइए जानते हैं। १३ फरवरी १८७९ सरोजिनी नायडू का जन्म हुआ था। सरोजिनी नायडू, उस समय भारतीय महिलाओं का चेहरा बनीं जब समाज में महिलाओं के हिस्से मूलभूत अधिकार भी नहीं थे । सरोजिनी एक कवयित्री थी और उनकी आवाज़ बहुत ही प्यारी थी और इसीलिए उन्हें भारत कोकिला यानि नाइटिंगल ऑफ़ इंडिया के नाम से पुकारा जाने लगा। उन्हें यह नाम महात्मा गांधी ने दिया था। इनका जन्म १३ फरवरी 1879 को हैदराबाद में एक हिन्दू बंगाली परिवार में हुआ था। उनका नाम सरोजिनी चट्टोपाध्याय था जो शादी के बाद सरोजिनी नायडू हो गया। सरोजिनी नायडू की माता वरद सुंदरी देवी चट्टोपाध्याय भी एक कवियित्री थीं और बांग्ला में लिखा करतीं थीं। इनके पिताजी एक स्कॉलर थे। वे एडिंगबर्घ university से science में डॉक्टरेट करके हैदराबाद में बस गए थे। सरोजिनी आठ भाई बहनों में सबसे बड़ी थीं। सरोजिनी नायडू के परिवार में पढ़ाई को बहुत महत्व दिया जाता था और सभी भाई बहन बहुत पढ़े लिखे थे। सरोजिनी नायडू ने मैट्रिक की परीक्षा मद्रास यूनिवर्सिटी से दी थी और टॉप किया था। उन्होंने बारह साल की उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया था। उन्हें बहुत सी भाषाएं भी आती थीं। उन्हें हिंदी, उर्दू, बंगाली, तेलुगु, अंग्रेज़ी और फ़ारसी भी आती थी। उनका लिखा नाटक मेहर मुनीर इतना प्रसिद्द हुआ कि सोलह साल की उम्र में उन्हें हैदराबाद के छठे नवाब, मीर महबूब अली खान ने इनाम के रूप में पढ़ने के लिए लंडन भेज दिया। वहाँ पर उन्होंने अपनी पढ़ाई किंग्स कॉलेज लंडन और फिर केम्ब्रिज के गर्टन कॉलेज में पूरी की। वहीं पर उनकी मुलाकात अंग्रेज़ी साहित्य के प्रसिद्द क्रिटिक आर्थर सिमंस और एडमंड गूस से हुई जिन्होंने उनकी कविताओं का विश्लेषण कर उन्हें अपनी कविताओं में अपने देश के सौंदर्य का वर्णन करने की सलाह दी। वे अपनी पढ़ाई पूरी तो नहीं कर पाई पर वे उस समय के भारत में कई महिलाओं व पुरुषों से भी कई गुना शिक्षित थीं। उन्नीस साल की उम्र में उनकी शादी पैदीपदि गोविंदराजुलू नायडू से हुई। ये उस समय के लिए एक बहुत ही बड़ी बात थी क्योंकि उनके पति एक फिज़िशियन थे...
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  • भारत के शास्त्रीय नृत्य - भाग- 8 (सत्रीया) | Classical Dance forms of India – Part 8 (Satriya)
    Mar 16 2023
    सत्रीया: सत्रीया नृत्य आसाम में जन्मी शास्त्रीय नृत्य की एक विधा है जिसकी रचना संत श्री शंकरदेव ने की थी। इस नृत्य के माध्यम से वे अंकिया नाट का प्रदर्शन किया करते थे। अंकिया नाट यानि वन एक्ट प्ले। ये उनके द्वारा रचित एक प्रकार का असमिया एकाकी नाटक है जो मुख्य रूप से सत्रों में प्रदर्शित किए जाता था। जैसे-जैसे इन प्रदर्शनों का विस्तार हुआ, इस नृत्य शैली को सत्रीया कहा जाने लगा क्यूंकि इसे आसाम के मठों यानि सत्रों में किया जाता था। भारत के इतिहास में तेरहवीं, चौदहवीं और पद्रहवीं शताब्दी को भक्ति काल की तरह देखा जाता है जहाँ प्रभु भक्ति का प्रचार किया गया। प्रभु भक्ति के साधन सीमित नहीं हो सकते और इसी भावना के साथ नृत्य और संगीत को भी इश्वर भक्ति का एक साधन माना गया और उनका प्रचार किया गया। असम का नृत्य और कला में एक लंबा इतिहास रहा है। शैववाद और शक्तिवाद परंपराओं से जुड़े ताम्रपत्रों से इस बात की पुष्टि होती है। आसाम में प्राचीन काल से ही नृत्य और गायन की परम्परा चली आ रही है और सत्रिया में इन्हीं लोक गीतों और नृत्यों का प्रभाव दिखता है। सत्रीया को अपनी मूल मुद्राएं और पदचारण इन्हीं लोक नृत्यों से मिली हैं जैसे की ओजपाली, देवदासी नृत्य, बोडो और बीहू। ओजपाली और देवदासी नृत्य, दोनों ही लोकनृत्य वैष्णववाद से जुड़े हैं जिनमें से ओजपाली हमेशा से ही ज़्यादा लोकप्रिय रहा है। ओजपाली के दो प्रकार हैं, सुखनन्नी ओजपाली जो शक्तिवाद यानि देवी की उपासना से जुड़ा हैं और व्याह गोय ओजपाली जो कि भगवान् विष्णु की भक्ति से जुड़ा हुआ है। व्याह गोय ओजपाली को शंकरदेव ने मठों में करवाना शुरू किया और धीरे- धीरे सुधरते सुधरते इस नृत्य ने आज के सत्रीया नृत्य का रूप ले लिया। सत्रीया नृत्य पहले केवल मठों में, वहाँ पर रहने वाले सन्यासियों या मॉन्क्स के द्वारा ही किया जाता था जिन्हें भोकोट कहते थे। इन प्रदर्शनों में वे खुद गाते थे और वाद्यों को भी खुद ही बजाते थे। समय के साथ इस नृत्य की शिक्षा स्त्रियों को भी दी जाने लगी। सत्रीया नृत्य शैली को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है; पौराशिक भंगी, जो कि पुरशों की शैली है और 'स्त्री भंगी', जो स्त्री शैली है। इस नृत्य की पोषाक पाट सिल्क से बनी होती है और नृत्यों का मंचन आसाम के बोरगीतों पर ...
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  • भारत के शास्त्रीय नृत्य - भाग- 7 (मणिपुरी) | Classical Dance forms of India – Part 7 (Manipuri)
    Mar 13 2023
    मणिपुरी: मणिपुरी नृत्य भारत के आठ प्रमुख शास्त्रीय नृत्यों में से एक है। इस नृत्य का नाम भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य मणिपुर के नाम पर रखा गया है, जहाँ से इसकी शुरुवात हुई थी, लेकिन अन्य शस्त्रीय नृत्यों की तरह, इसकी जड़ें भी भरत मुनि के 'नाट्य शास्त्र' में मिलती हैं। इस नृत्य में भारतीय और दक्षिण पूर्व एशियाई संस्कृति का मिश्रण स्पष्ट दिखाई देता है। इस जगह की सदियों पुरानी नृत्य परंपरा भारतीय महाकाव्यों, 'रामायण' और 'महाभारत' से प्रकट होती है, जहां मणिपुर के मूल नृत्य विशेषज्ञों को 'गंधर्व' कहा जाता है। परंपरागत रूप से मणिपुरी लोग खुद को 'गंधर्व' मानते हैं जो देवों या देवताओं से जुड़े गायक, नर्तक और संगीतकार थे जिनका वैदिक ग्रंथों में उल्लेख भी मिलता है। प्रारंभिक मध्ययुगीन काल के दक्षिणपूर्व एशियाई मंदिरों में नर्तकों के रूप में 'गंधर्वों' की मूर्तियां देखी जा सकती हैं। प्राचीन मणिपुरी ग्रंथों में इस क्षेत्र का उल्लेख 'गंधर्व-देश' के रूप में भी किया गया है। इसे विशेष रूप से वैष्णववाद पर आधारित विषयों और 'रास लीला' के शानदार प्रदर्शन के लिए जाना जाता है। इस नृत्य कला के माध्यम से अन्य विषयों जैसे शक्तिवाद और शैववाद का प्रदर्शन भी होता है। इसके आलावा मणिपुरी त्योहार 'लाई हरोबा' के दौरान उमंग लाई नामक वन देवताओं से जुड़ी कथाओं का मंचन भी किया जाता है। परंपरा के अनुसार इस नृत्य कला का ज्ञान मौखिक है और महिलाओं को मौखिक रूप से दिया जाता है जो मणिपुर में 'चिंगखेरोल' के नाम से प्रसिद्ध है। समय के साथ प्राचीन मणिपुरी ग्रंथ धीरे-धीरे नष्ट हो गए, पर मणिपुरी की मौखिक परंपरा के प्रमाण 18वीं शताब्दी की शुरुआत के अभिलेखों में, और एशियाई पांडुलिपियों में भी पाए गए हैं। सन 1717 में राजा गरीब निवाज ने भक्ति वैष्णववाद को अपनाया, जिसमें भगवान कृष्ण से जुड़े विषयों पर आधारित गायन और नृत्य सहित धार्मिक प्रदर्शन कलाओं का उच्चारण होता था। मणिपुर में 'रास लीला' का आविष्कार और वैष्णववाद का प्रसार करने का श्रेय राजर्षि भाग्य चंद्र को जाता है। इस नृत्य शैली का प्रदर्शन और मूल नाटक विभिन्न मौसमों के हिसाब से होता है। मणिपुरी नृत्य अगस्त से नवंबर तक तीन बार शरद ऋतु में, और एक बार वसंत ऋतु में मार्च-अप्रैल के आसपास किया जाता है। सभी ...
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