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  • भारत के शास्त्रीय नृत्य - भाग- 8 (सत्रीया) | Classical Dance forms of India – Part 8 (Satriya)
    Mar 17 2023
    सत्रीया: सत्रीया नृत्य आसाम में जन्मी शास्त्रीय नृत्य की एक विधा है जिसकी रचना संत श्री शंकरदेव ने की थी। इस नृत्य के माध्यम से वे अंकिया नाट का प्रदर्शन किया करते थे। अंकिया नाट यानि वन एक्ट प्ले। ये उनके द्वारा रचित एक प्रकार का असमिया एकाकी नाटक है जो मुख्य रूप से सत्रों में प्रदर्शित किए जाता था। जैसे-जैसे इन प्रदर्शनों का विस्तार हुआ, इस नृत्य शैली को सत्रीया कहा जाने लगा क्यूंकि इसे आसाम के मठों यानि सत्रों में किया जाता था। भारत के इतिहास में तेरहवीं, चौदहवीं और पद्रहवीं शताब्दी को भक्ति काल की तरह देखा जाता है जहाँ प्रभु भक्ति का प्रचार किया गया। प्रभु भक्ति के साधन सीमित नहीं हो सकते और इसी भावना के साथ नृत्य और संगीत को भी इश्वर भक्ति का एक साधन माना गया और उनका प्रचार किया गया। असम का नृत्य और कला में एक लंबा इतिहास रहा है। शैववाद और शक्तिवाद परंपराओं से जुड़े ताम्रपत्रों से इस बात की पुष्टि होती है। आसाम में प्राचीन काल से ही नृत्य और गायन की परम्परा चली आ रही है और सत्रिया में इन्हीं लोक गीतों और नृत्यों का प्रभाव दिखता है। सत्रीया को अपनी मूल मुद्राएं और पदचारण इन्हीं लोक नृत्यों से मिली हैं जैसे की ओजपाली, देवदासी नृत्य, बोडो और बीहू। ओजपाली और देवदासी नृत्य, दोनों ही लोकनृत्य वैष्णववाद से जुड़े हैं जिनमें से ओजपाली हमेशा से ही ज़्यादा लोकप्रिय रहा है। ओजपाली के दो प्रकार हैं, सुखनन्नी ओजपाली जो शक्तिवाद यानि देवी की उपासना से जुड़ा हैं और व्याह गोय ओजपाली जो कि भगवान् विष्णु की भक्ति से जुड़ा हुआ है। व्याह गोय ओजपाली को शंकरदेव ने मठों में करवाना शुरू किया और धीरे- धीरे सुधरते सुधरते इस नृत्य ने आज के सत्रीया नृत्य का रूप ले लिया। सत्रीया नृत्य पहले केवल मठों में, वहाँ पर रहने वाले सन्यासियों या मॉन्क्स के द्वारा ही किया जाता था जिन्हें भोकोट कहते थे। इन प्रदर्शनों में वे खुद गाते थे और वाद्यों को भी खुद ही बजाते थे। समय के साथ इस नृत्य की शिक्षा स्त्रियों को भी दी जाने लगी। सत्रीया नृत्य शैली को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है; पौराशिक भंगी, जो कि पुरशों की शैली है और 'स्त्री भंगी', जो स्त्री शैली है। इस नृत्य की पोषाक पाट सिल्क से बनी होती है और नृत्यों का मंचन आसाम के बोरगीतों पर ...
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  • भारत के शास्त्रीय नृत्य - भाग- 7 (मणिपुरी) | Classical Dance forms of India – Part 7 (Manipuri)
    Mar 17 2023
    मणिपुरी: मणिपुरी नृत्य भारत के आठ प्रमुख शास्त्रीय नृत्यों में से एक है। इस नृत्य का नाम भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य मणिपुर के नाम पर रखा गया है, जहाँ से इसकी शुरुवात हुई थी, लेकिन अन्य शस्त्रीय नृत्यों की तरह, इसकी जड़ें भी भरत मुनि के 'नाट्य शास्त्र' में मिलती हैं। इस नृत्य में भारतीय और दक्षिण पूर्व एशियाई संस्कृति का मिश्रण स्पष्ट दिखाई देता है। इस जगह की सदियों पुरानी नृत्य परंपरा भारतीय महाकाव्यों, 'रामायण' और 'महाभारत' से प्रकट होती है, जहां मणिपुर के मूल नृत्य विशेषज्ञों को 'गंधर्व' कहा जाता है। परंपरागत रूप से मणिपुरी लोग खुद को 'गंधर्व' मानते हैं जो देवों या देवताओं से जुड़े गायक, नर्तक और संगीतकार थे जिनका वैदिक ग्रंथों में उल्लेख भी मिलता है। प्रारंभिक मध्ययुगीन काल के दक्षिणपूर्व एशियाई मंदिरों में नर्तकों के रूप में 'गंधर्वों' की मूर्तियां देखी जा सकती हैं। प्राचीन मणिपुरी ग्रंथों में इस क्षेत्र का उल्लेख 'गंधर्व-देश' के रूप में भी किया गया है। इसे विशेष रूप से वैष्णववाद पर आधारित विषयों और 'रास लीला' के शानदार प्रदर्शन के लिए जाना जाता है। इस नृत्य कला के माध्यम से अन्य विषयों जैसे शक्तिवाद और शैववाद का प्रदर्शन भी होता है। इसके आलावा मणिपुरी त्योहार 'लाई हरोबा' के दौरान उमंग लाई नामक वन देवताओं से जुड़ी कथाओं का मंचन भी किया जाता है। परंपरा के अनुसार इस नृत्य कला का ज्ञान मौखिक है और महिलाओं को मौखिक रूप से दिया जाता है जो मणिपुर में 'चिंगखेरोल' के नाम से प्रसिद्ध है। समय के साथ प्राचीन मणिपुरी ग्रंथ धीरे-धीरे नष्ट हो गए, पर मणिपुरी की मौखिक परंपरा के प्रमाण 18वीं शताब्दी की शुरुआत के अभिलेखों में, और एशियाई पांडुलिपियों में भी पाए गए हैं। सन 1717 में राजा गरीब निवाज ने भक्ति वैष्णववाद को अपनाया, जिसमें भगवान कृष्ण से जुड़े विषयों पर आधारित गायन और नृत्य सहित धार्मिक प्रदर्शन कलाओं का उच्चारण होता था। मणिपुर में 'रास लीला' का आविष्कार और वैष्णववाद का प्रसार करने का श्रेय राजर्षि भाग्य चंद्र को जाता है। इस नृत्य शैली का प्रदर्शन और मूल नाटक विभिन्न मौसमों के हिसाब से होता है। मणिपुरी नृत्य अगस्त से नवंबर तक तीन बार शरद ऋतु में, और एक बार वसंत ऋतु में मार्च-अप्रैल के आसपास किया जाता है। सभी ...
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  • भारत के शास्त्रीय नृत्य - भाग- 6 (ओड़िसी) | Classical Dance forms of India – Part 6 (Odisi)
    Mar 17 2023
    ओड़िसी : ओड़िसी नृत्य भारत की आठ प्रमुख शास्त्रीय नृत्य शैलियों में से एक है और इसका जन्म भारत के पूर्व में स्थित राज्य ओडिशा में हुआ था। यह एक सौम्य और गीतात्मक नृत्य शैली है जिसे प्रेम का नृत्य माना जाता है। यह मानव जीवन में छिपी दिव्यता को छूता है। यह जीवन की छोटी-छोटी बातों बहुत खूबसूरती से छूता है। ओड़िसी नृत्य का उल्लेख ब्रह्मेश्वर मन्दिर के शिलालेखों में देखा जा सकता है तथा वहाँ की मूर्तियों में ओड़िसी नृत्यांगनाओं की छवि भी देखी जा सकती है। इसके आलावा भुवनेश्वर के राजरानी और वेंकटेश मंदिर, पुरी के जगन्नाथ मंदिर और कोणार्क के सूर्या मंदिर में भी ओड़िसी नृत्य से जुड़े प्रमाण मिलते हैं। इतिहास के जानकारों के हिसाब से ओड़िसी मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा किया जाता था। यह ओड़िसा के प्राचीन कवियों द्वारा ओडिसी संगीत के रागों और तालों के अनुसार लिखे गीतों के पर किया जाता है। ओडिसी नृत्य के माध्यम से नर्तक वैष्णववाद की धार्मिक कहानियों और विचारों को व्यक्त करता है। ओडिसी प्रदर्शनों के माध्यम से अन्य विचार धाराओं को भी अभिव्यक्त किया जाता है जैसे कि हिंदू देवताओं शिव और सूर्य से संबंधित कथाएं तथा देवी के शक्ति रूप की कथाओं का प्रदर्शन। ओडिसी की झलक ओधरा मगध नामक नृत्य शैली में देखी जा सकती है। इसका उल्लेख शास्त्रीय नृत्य की दक्षिण-पूर्वी शैली, और नाट्यशास्त्र में भी किया गया है। ओड़िसी एक बहुत ही शैलीबद्ध नृत्य है। पारंपरिक रूप से यह एक नृत्य-नाटक शैली है, जहाँ कलाकार और संगीतकार प्रतीकात्मक वेशभूषा, नृत्य और अभिनय के माध्यम से एक कहानी, आध्यात्मिक संदेश या हिंदू ग्रंथों के विभिन्न प्रसंगों का प्रदर्शन करते हैं। इस नृत्य की मुद्राएं प्राचीन साहित्य में वर्णित हैं। अभिनय के लिए शास्त्रीय ओडिया साहित्य, और पारंपरिक ओडिसी संगीत पर आधारित गीत गोविंद का उपयोग किया जाता है। इसमें दिखने वाली भंग, द्विभंग, त्रिभंग तथा पदचारण की मुद्राएं भरतनाट्यम से काफी मिलती हैं। एक ओड़िसी नृत्य प्रदर्शन में मंगलाचरण, नृत्त (शुद्ध नृत्य), नृत्य (अभिव्यक्ति युक्त नृत्य), नाट्य (नृत्यनाटिका) और मोक्ष यानि नृत्य अंतिम भाग या क्लाइमैक्स जिसे आत्मा की स्वतंत्रता और आध्यात्मिक मुक्ति भी कहा जा सकता है, शामिल होते हैं। ...
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  • भारत के शास्त्रीय नृत्य - भाग- 5 (कुचिपुड़ी) | Classical Dance forms of India – Part 5 (Kuchipudi)
    Mar 17 2023
    कुचिपुड़ी: नमस्कार, चलिए आज आंध्रप्रदेश चलते हैं और जानते हैं वहाँ जन्में शास्त्रीय नृत्य कुचिपुड़ी को। आप सोच रहे होंगे, कत्थक, कथकली, भरतनाट्यम, मोहिनीअट्टम, और कुचिपुड़ी? इसमें तो नृत्य से जुड़ा कुछ भी नहीं। तो आप बिलकुल सही सोच रहे हैं। कुचिपुड़ी आंध्रप्रदेश में कृष्णा डिस्ट्रिक्ट का एक छोटा सा गाँव है जहाँ से कुचिपुड़ी नृत्य की शुरुआत हुई थी। कुचिपुड़ी, कुचेलापुरम या कुचिलापुरी का संक्षिप्त रूप है। दिलचस्प बात तो ये है कि ये दोनों शब्द संस्कृत शब्द कुसिलावा पुरम का तद्भव रूप हैं, जिसका अर्थ है 'अभिनेताओं का गाँव'। जैसा की हम पहले जान चुके हैं, भारत के सभी शास्त्रीय नृत्यों की जड़ें भरतमुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र से जुड़ी हैं जिसमें कुचिपुड़ी का उल्लेख भी किया गया है। यह भारत के सभी प्रमुख शास्त्रीय नृत्यों की तरह मंदिरों और आध्यात्मिक विश्वासों से जुड़ी नृत्य कला के रूप में विकसित हुआ। मध्यकालीन युग के नृत्य-नाट्य प्रदर्शन के कलाकार ब्राह्मण थे। भारतीय संस्कृति में प्राचीन समय से ही नृत्य और संगीत को भगवान से जुड़ने का एक माध्यम माना जाता रहा है। कुचिपुड़ी के अस्तित्व के साक्ष्य 10वीं शताब्दी के तांबे के शिलालेखों में पाए जाते हैं, और 15वीं शताब्दी तक माचुपल्ली कैफत जैसे ग्रंथों में पाए जाते हैं। ऐसा माना जाता ​​है कि तीर्थ नारायण यति, जो कि अद्वैत वेदांत को मानते वाले एक संन्यासी थे, और उनके शिष्य, सिद्धेंद्र योगी ने 17वीं शताब्दी में कुचिपुड़ी के आधुनिक रूप की स्थापना की और उसे व्यवस्थित किया। कुचिपुड़ी कृष्ण को समर्पित एक वैष्णववाद परंपरा के रूप में विकसित हुआ और इसे तंजावुर में भागवत मेला के नाम से जाना जाता है। पुराने समय में बस पुरुष नर्तकों द्वारा ही कुचिपुड़ी का प्रदर्शन किया जाता था। पुरुष की भूमिका में एक नर्तक अग्निवस्त्र या धोती पहनते हैं जिसे बागलबंदी के नाम से भी जाना जाता है। महिला की भूमिका में नर्तक साड़ी पहना करते थे और हल्का मेकअप भी लगते थे। वर्त्तमान समय में ये नृत्य स्त्री और पुरुष दोनों ही करते हैं। कुचिपुड़ी के कलाकारों को राजसी सहयोग व प्रोत्साहन भी मिलता था। १५ वीं और सोलहवीं शताब्दी में इस कला का खूब विकास हुआ पर विजयनगर साम्राज्य के पतन के साथ ही मुगलों के अधीन ...
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  • भारत के शास्त्रीय नृत्य - सार (भाग १ - ४) | Classical Dance forms of India – (Part 1 - 4)
    Mar 17 2023
    कत्थक: कथक किसी एक राज्य से जुड़ा नहीं है और उत्तर भारत के कई राज्यों में देखा जा सकता है। कत्थक शब्द में छुपा है शब्द कथा, और इसका जन्म कहानी सुनाने की कला से जुड़ा है। इसी कला को और प्रभावशाली बनाने के लिए विभिन्न भाव भंगिमाओं का इस्तेमाल किया जाने लगा और धीरे-धीरे इसमें ताल, संगीत और नृत्य जुड़ गया। इसकी जड़ें रासलीला में पाई जाती हैं जहाँ कृष्ण लीला और भगवत पुराण के अध्यायों का नृत्य नाटिका के रूप में मंचन किया जाता था। भक्ति से जुडी इस कला का अपना इतिहास है। भक्ति काल में पनपी इस नृत्य कला को मुगलों ने भी खूब प्रोत्साहित किया परन्तु इसमें से भक्ति की जगह कामुकता ने ले ली और मंदिरों से निकलकर यह नृत्य दरबारों तक पहुँच गया। मुगलों के पतन के साथ कत्थक भी गुम होने लगा। अठारहवीं शताब्दी में अवध के अंतिम नवाब, वाजिद अली शाह ने कत्थक को समाज में सम्मान दिलाया। भरतनाट्यम: भरतनाट्यम भारत की सबसे पुरानी शास्त्रीय नृत्य परंपरा है जिसमें नृत्यांगनाएं वेदों, पुराणों,रामायण, महाभारत और खासकर शिव पुराण की कथाओं को आकर्षक भाव भंगिमाओं और मुद्राओं के माध्यम से प्रदर्शित करते हैं। यह नृत्य कला लगभग दो हज़ार साल पुरानी है। यह तमिलनाड़ू का राजकीय नृत्य है। भरतनाट्यम को मंदिरों में ही किया जाता था। कई पौराणिक मंदिरों में बनी प्रतिमाएं भरतनाट्यम की मुद्राओं से मिलती हैं जैसे सातवीं शताब्दी में बनी बादामी के गुफा मंदिरों में मिली नटराज की मूर्ति। बीसवीं शताब्दी में यह नृत्य मंदिरों से निकलकर भारत के अन्य राज्यों और साथ ही साथ विदेशों तक भी पहुँच गया। स्वतंत्रता के उपरान्त इस नृत्य को खूब ख्याति मिली। भरतनाट्यम को भारत के बैले के रूप में जाना जाने लगा। भारत के बाहर यह नृत्य कला अमेरिका, यूरोप, कैनेडा, खाड़ी देशों, बांग्लादेश और सिंगापूर में भी सिखाया जाता है। विदेशों में रह रहे भारतीयों के लिए यह और अन्य शास्त्रीय नृत्य कलाएं अपनी संस्कृति से जुड़े रहने एक जरिया है और आपसी मेल-मिलाप का बहाना भी। कथकली: कथकली केरल राज्य की एक प्राचीन नृत्य कला है जिसे इसकी भव्य वेशभूषा और अद्भुत श्रृंगार के लिए जाना जाता है। कथकली का अर्थ है कथा का नाट्य रूपांतरण। कथ का अर्थ है कहानी, और कली का मतलब है प्रदर्शन। कथकली का जन्म 17वीं ...
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  • भारत के शास्त्रीय नृत्य - भाग- 4 (मोहिनीअट्टम) | Classical Dance forms of India – Part 4 (Mohiniattam)
    Mar 17 2023
    मोहिनीअट्टम: मोहिनीअट्टम भी केरल राज्य का एक शास्त्रीय नृत्य है, जो अभी भी काफी लोकप्रिय है। मोहिनीअट्टम को इसका नाम पुराणों में वर्णित भगवान् विष्णु के मोहिनी अवतार से मिला है। मोहिनी - अट्टम यानि मोहिनी का नृत्य। मोहिनी का शाब्दिक अर्थ है मन को मोह लेन वाली और अट्टम का अर्थ है नृत्य। भरतनाट्यम की तरह मोहिनीअट्टम की जड़ें भी भरत मुनि के नाट्य शास्त्र से जुड़ी हैं। नाट्य शास्त्र में भगवान् शिव के रौद्र रूप में किए नृत्य, तांडव तथा कोमल, भाव भंगिमाओं से युक्त लास्य नृत्य शैलियों का वर्णन है। मोहिनीअट्टम लास्य शैली का नृत्य है। मोहिनीअट्टम का इतिहास स्पष्ट नहीं है। केरल के जिस क्षेत्र में यह नृत्य शैली विकसित हुई और लोकप्रिय हुई, वहाँ लास्य शैली के नृत्यों की एक लंबी परंपरा है, जिसकी मूल बातें और संरचना एक सी ही होती है। मोहिनीअट्टम नृत्य परंपरा का सबसे पहला प्रमाण केरल के मंदिर की मूर्तियों में मिलता है। 11वीं शताब्दी के त्रिकोदिथानम के विष्णु मंदिर और किदंगुर सुब्रमण्य मंदिर में मोहिनीअट्टम मुद्रा में महिला नर्तकियों की कई मूर्तियां हैं। 12वीं शताब्दी के बाद के लेख बताते हैं कि मलयालम कवियों और नाटककारों में लस्या विषय शामिल थे। 16वीं शताब्दी में नंबूतिरी द्वारा रचित व्यवहारमाला में मोहिनीअट्टम शब्द का प्रयोग देखा जा सकता है । 17वीं शताब्दी के एक अन्य लेख, गोशा यात्रा में भी इस शब्द का उल्लेख है। 18वीं सदी में केरल में रचित नाट्य शास्त्र पर आधारित बलराम भारतम में भी मोहिनी नटना सहित कई शास्त्रीय नृत्य शैलियों का उल्लेख है। १८वीं और १९वीं शताब्दी में मोहिनी अट्टम तथा भरतनाट्यम को राजकीय परिवारों का समर्थन और प्रोत्साहन मिला जिससे ये कलाएं विकसित हुई। इस शास्त्रीय नृत्य को व्यवस्थित करने में राजा स्वाति थिरूनल रमा वर्मा का बहुत बड़ा हाथ है। वे खुद एक कवि, और संगीतकार भी थे। 19वीं शताब्दी में मोहिनीअट्टम नृत्य विवाह के तीन संस्कारों का हिस्सा था। वे थली-केट्टु-कल्याणम (विवाह सूत्र-विवाह), तिरंडुकल्याणम (मासिक धर्म विवाह), और संबंधम (शादी जैसे अनुष्ठान या अनौपचारिक गठबंधन) थे। इसने उस समय समाज के भीतर जातियों के सामाजिक संतुलन को बनाए रखने का काम किया। मोहिनीअट्टम के ऊपर अंग्रेज़ों द्वारा ...
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  • भारत के शास्त्रीय नृत्य - भाग-३ (कथकली) | Classical Dance forms of India – Part - 3 (Kathakali)
    Mar 17 2023
    कथकली : कथकली केरल राज्य की एक प्राचीन नृत्य कला है जिसे इसकी भव्य वेशभूषा, अद्भुत श्रृंगार और मुखौटों के लिए जाना जाता है। कथकली का अर्थ है कथा का नाट्य रूपांतरण। कथ का अर्थ है कहानी, और कली का मतलब है प्रदर्शन। कथकली का जन्म 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ था। कथकली केवल पुरुषों द्वारा किया जाता था और स्त्रियों के पात्रों की प्रस्तुति भी पुरुषों द्वारा ही की जाती है। वर्तमान समय में स्त्रियों को भी इस नृत्य कला से जोड़ लिया गया है। यह नृत्य अच्छाई और बुराई के बीच युगों-युगों से चल रही लड़ाई का प्रतीक है। समय के अनुसार कथकली की वेशभूषा, संगीत, वादन, अभिनय-रीति, अनुष्ठान आदि सभी क्षेत्र परिवर्तित हुए हैं। राजमहलों तथा ब्राह्मणों के संरक्षण में यह नृत्य नाट्य कला विकास की सीढ़ियां चढ़ती रहीं। कथकली बस अपनी भव्यता के लिए ही नहीं बल्कि अपनी विभिन्न हस्त मुद्राओं और हर एक भाव को बस आँखों से व्यक्त करने की अद्भुत कला के लिए भी प्रसिद्ध है। कथकली में रामायण, महाभारत व अन्य पुराणों से जुड़ी कथाओं का नाट्य मंचन किया जाता है। भारी भरकम वस्त्र और मुकुट पहनने से पहले हर कलाकार का चेहरा उसके पात्र के निश्चित रंग से रंग दिया जाता है। हर पात्र के लिए एक निश्चित वेशभूषा है जिससे दर्शकों को पात्रों को पहचानने में आसानी हो। अन्य नृत्यों के मुकाबले कथकली में नृत्य के साथ साथ अभिनय भी बहुत ज़रूरी है और इसीलिए यह भारत का सबसे कठिन शास्त्रीय नृत्य माना जाता है। वेषम या मेक-अप पांच प्रकार के होते हैं - पच्चा, कत्ती, ताडी, करि और मिनुक्क। कथकली की भव्यता और शान इसकी सज्जा और श्रृंगार के कारण होती है जिसका एक महत्वपूर्ण अंग है किरीटम (सिर के ऊपर की विशाल सज्जा या मुकुट) और कंचुकम (बड़े आकार का अंगवस्त्र/जैकेट) और एक लंबा लहंगा जिसे कुशन की मोटी गद्दी के ऊपर पहना जाता है। १: पच्चा वेषम या हरा मेक-अप शालीन नायक प्रस्तुत करता है। २: कत्ती या चाक़ू वेषम खलनायक का चरित्र पेश करता है। ३: ताडी (दाढ़ी) तीन प्रकार की दाढ़ी या ताडी वेषम होते हैं। हनुमान जैसे अतिमानवीय वानरों के लिए वेल्ला ताडी या सफेद दाढ़ी और चुवन्ना ताडी या लाल दाढ़ी दुष्ट चरित्रों के लिए होती है। करुत्ता ताडी या काली दाढ़ी शिकारी के लिए होती है। ४: करि (काला) करि वेषम ...
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  • भारत के शास्त्रीय नृत्य - भाग - २ (भरतनाट्यम) | Classical Dance forms of India – Part 2 (Bharatnatyam)
    Mar 17 2023
    भरतनाट्यम: भरतनाट्यम भारत की सबसे पुरानी शास्त्रीय नृत्य परंपरा है जिसमें नृत्यांगनाएं वेदों, पुराणों,रामायण, महाभारत और खासकर शिव पुराण की कथाओं को आकर्षक भाव भंगिमाओं और मुद्राओं के माध्यम से प्रदर्शित करते हैं। यह तमिलनाड़ू का राजकीय नृत्य है। भरतनाट्यम को देवदासियों से जोड़ा जाता है पर कई पुरातत्व वैज्ञानिकों ने इसे उससे बहुत पहले की नृत्य कला बताया है। भरतनाट्यम को मंदिरों में ही किया जाता था। कई पौराणिक मंदिरों में बनी प्रतिमाएं भरतनाट्यम की मुद्राओं से मिलती हैं जैसे सातवीं शताब्दी में बनी बादामी के गुफा मंदिरों में मिली नटराज की मूर्ति। बीसवीं शताब्दी में यह नृत्य मंदिरों से निकलकर भारत के अन्य राज्यों और साथ ही साथ विदेशों तक भी पहुँच गया। स्वतंत्रता के उपरान्त इस नृत्य को खूब ख्याति मिली। भरतनाट्यम के भारत के बैले के रूप में जाना जाने लगा। भारत के बाहर यह नृत्य कला अमेरिका, यूरोप, कैनेडा, खाड़ी देशों, बांग्लादेश और सिंगापूर में भी सिखाया जाता है। विदेशों में रह रहे भारतीयों के लिए यह और अन्य शास्त्रीय नृत्य कलाएं अपनी संस्कृति से जुड़े रहने एक जरिया है और आपसी मेल-मिलाप का बहाना भी । यह नृत्य कला लगभग दो हज़ार साल पुरानी है। दूसरी शताब्दी से भरतनाट्यम का वर्णन प्राचीन तमिल महाकाव्य सिलप्पाटिकरम में पाया जा सकता है, जबकि 6वीं से 9वीं शताब्दी के मंदिरों की मूर्तियाँ बताती हैं कि यह पहली सहस्राब्दी के मध्य तक एक अत्यधिक परिष्कृत परिष्कृत यानी sophisticated प्रदर्शन कला के रूप में स्थापित हो चूका था। उन्नीसवीं शताब्दी तक यह नृत्य मंदिरों तक ही सीमित था। बड़ी अजीब सी बात है की आधुनिक माने जाने वाले अंग्रेज़ों ने अपने राज में भारत के कई शास्त्रीय नृत्यों को वेश्यावृत्ति से जोड़ कर उनका मख़ौल उड़ाया और १९१० में भरतनाट्यम पर पूर्ण रूप से रोक लका दी जिससे धीरे-धीरे ये कलाएं मरने लगीं। पर लोगों ने इसका जी जान से विरोध किया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय अपनी कला और संस्कृति को अंग्रेज़ों के विरुद्ध फिर से अभिव्यक्ति दी। भरतनाट्यम को पहले सादीरट्टम, परथैयार अट्टम और ठेवारट्टम भी कहा जाता था। सन १९३२ में ई कृष्णा अय्यर और रुक्मिणी देवी ने मद्रास संगीत अकादमी के सामने इस प्राचीन नृत्य कला को ...
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